मन रे तन कागद का पुतला| |
जुगुप्सा रति निर्वेद उत्साह |
निर्वेद |
इन पंक्तियों में निर्वेद स्थायी भाव है। निर्वेद का अर्थ है निराशा, उदासीनता, अरुचि। इन पंक्तियों में कबीर दास जी मनुष्य को उसके शरीर की नश्वरता का बोध कराते हुए कहते हैं कि यह शरीर कागज के पुतले के समान है, जो पानी की बूँद से क्षणभर में नष्ट हो सकता है। ऐसे नश्वर शरीर पर क्यों गर्व किया जाए? इन पंक्तियों में "गर्व करे क्यों इतना" वाक्य में निर्वेद भाव का स्पष्ट बोध होता है। कबीर दास जी मनुष्य को इस निर्वेद भाव से प्रेरित करते हैं कि वह अपने शरीर की नश्वरता को समझकर ईश्वर के प्रति समर्पण भाव से जीवन व्यतीत करे। अन्य विकल्प गलत हैं क्योंकि:
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