नीचे लिखे गद्यांश में से प्रश्न का सही उत्तर दीजिए। यह युग एक प्रकार से पैसे का युग है। चारों ओर धन की ही पुकार मची हुई है। परंतु फिर भी एक ग़रीब लेखक तथा विद्वान व्यक्ति का करोड़पतियों से अधिक आदर होता है। धन हमेशा ही बुरी आदतों को प्रोत्साहन देता है। धन-लोलुप व्यक्ति की सफलता हज़ारों को दुःख और असफलता में डाल देती है। बुद्धि की दुनिया में सफलता से समाज की उन्नति में सहायता मिलती है। धनी धन के घमंड से अपने चरित्र को खो बैठता है और धनहीन उसे ही अपना सब कुछ समझकर अपनाता है। पर चरित्रवान पुरुष तो चरित्र को ईश्वर का एक आदेश मानता है और धन संचय या लाभ-हानि की चिंता किए बिना निःस्वार्थ भाव से अपने कार्य करता है। इसीलिए हम सब चरित्रवान पर भरोसा करते हैं। संसार में विजय पाने के लिए चरित्र बड़ा मूल्यवान साधन होता है। चरित्र के मार्ग पर चलने वाला आदमी ही सच्चे अर्थों में महान होता है। ऐसे व्यक्ति ही मानव जाति का कल्याण करते हैं, अनाथों और निरीह अबलाओं के उत्थान में सहायक होते हैं, रोगग्रस्त मानवों की सहायता करते हैं और राष्ट्र के उत्थान के लिए अपना बलिदान कर देते हैं। संसार में जिसका देवता सुवर्ण होता है, उसका हृदय प्रायः पत्थर का होता है उसको दूसरों के आँसू पोंछने में विश्वास नहीं होता। वह दूसरों को मिटाकर बनता है, दूसरों के घर गिराकर अपना घर बनाता है, उसकी नस-नस में लोभ भरा होता है। ऐसे मनुष्य के चेहरे पर कभी भी सौम्यता, शांति एवं माधुर्य का भाव दृष्टिगोचर नहीं होता। प्रकृति उसके चेहरे पर उसके हृदय की दुर्गंध की छाप लगा देती है। संसार को ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है जो स्वार्थ के लिए नहीं परमार्थ के लिए जीवित रहते हैं। जो धन के लिए स्वाभिमान नहीं बेचते, जिनकी अंतरात्मा एक दिशा सूचक यंत्र की सुई के समान एक शुभ नक्षत्र की ओर ही देखा करती है, जो अपने समय, शक्ति और जीवन को दूसरों के लिए, देश, जाति और समाज के लिए अर्पित कर देते हैं, ऐसे ही आदमियों का चरित्र महान होता है। ये वज्र के समान दृढ़ होते हैं, इन पर प्रहार होते हैं, पर इनका एक रोम भी विचलित नहीं होता। |
संसार को कैसे व्यक्ति की आवश्यकता है? |
जो लोभी हो और धन संचय करता हो। जो स्वार्थ के लिए नहीं परमार्थ के लिए जीवित रहता हो। जो गरीब हो और दूसरों के धन को पाना चाहे। जो स्वार्थ से ओत-प्रोत हो। |
जो स्वार्थ के लिए नहीं परमार्थ के लिए जीवित रहता हो। |
सही उत्तर विकल्प (2) है → जो स्वार्थ के लिए नहीं परमार्थ के लिए जीवित रहता हो। |