जाती हुई धूप संध्या की सेंक रही है मां अपना अप्रासंगिक होना देख रही है मां
भरा हुआ घर है नाती-पोतों से, बच्चों से अनबोला बहुओं का बोले बंद खिड़कियों से
इधर-उधर उड़ती सी नज़रें फेंक रही है मां
फूली सरसों नहीं रही अब खेतों में मन के पिता नहीं हैं, अब नस-नस क्या कंगन सी खनकें
रस्ता धकी हुई यादों का छेंक रही है मां |
'फूली सरसों नहीं रही' से अभिप्राय है - |
वृद्धावस्था की कठिनाई उमंग का भाव मन का उल्लास से भरना मन में उल्लास का समाप्त होना |
मन में उल्लास का समाप्त होना |
कविता में, "फूली सरसों नहीं रही" से अभिप्राय है मन में उल्लास का समाप्त होना | (As per NTA) |