निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर प्रश्न का उत्तर दीजिये:- जिन लेखों और विश्लेषणों को हम पढ़ते हैं वे राजनीतिक तकाज़ों से लाभ- हानि का हिसाब लगाते हुए लिखे जाते हैं, इसलिए उनमें पक्षधरता भी होती है और पक्षधरता के अनुरूप अपर पक्ष के लिए व्यर्थता भी । इसे भजन मंडली के बीच का भजन कह सकते हैं। सांप्रदायिकता अर्थात अपने संप्रदाय की हित चिंता जो अभी तक मात्र एक ख्याल ही बना रह गया है ,कि और कदम नहीं बढ़ाए जा सकते । पहले कदम की कसौटी यह है कि वह दूसरे कदम के लिए रुकावट तो नहीं बन जाता। वृहत्तर सरोकारों से लघुतर सरोकारों का अनमेल पढ़ना उन्हें संकीर्ण ही नहीं बनाता , अन्य हितों से टकराव की स्थिति में लाकर एक ऐसी पंगुता पैदा करता है । धर्मों, संप्रदायों और यहां तक कि विचारधाराओं तक की सीमाएँ यही से पैदा होती हैं , जिनका आरंभ तो मानवतावादी तकाज़ों से होता है और अमल में वे मानवद्रोही ही नहीं हो जाते बल्कि उस सीमित समाज का भी अहित करते हैं , जिसके हित की चिंता को सर्वोपरि मानकर यह चलते हैं । सामुदायिक हितों का टकराव वर्चस्व हितों से होना अवश्यंभावी है । अवसर की कमी और अस्तित्व की रक्षा के चलते दूसरे वंचित या अभावग्रस्त समुदायों से भी टकराव और प्रतिस्पर्धा की स्थिति पैदा होती है। बाहरी एकरूपता के नीचे समाजों में भीतरी दायरे में कई तरह के असंतोष बने रहते हैं और यह पहले से रहे हैं। सांप्रदायिकता ऐसी की संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय। भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है कि इसने सामाजिक अलगाव को विस्फोट नहीं होने दिया और इसके चलते ही अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों को पहले कभी जन समर्थन नहीं मिला। |
किस अर्थ में संप्रदायिकता को अच्छी बात कहा गया है? |
सांप्रदायिकता धर्म को बांटती है| व्यक्तिगत शुद्धता को त्याग कर संप्रदाय का चिंतन करने में| अवसर की कमी के कारण पिछड़ जाने में| समाज ,जाति ,धर्म भाषा , संप्रदाय आदि के आधार पर छिन्न-भिन्न होने में| |
व्यक्तिगत शुद्धता को त्याग कर संप्रदाय का चिंतन करने में| |
सांप्रदायिकता से वशीभूत होकर मनुष्य अपने संप्रदाय का चिंतन करता है| व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत शुद्धता को त्याग कर आगे कदम बढ़ाता है तथा मानव मात्र की हित-चिंता की ओर बढ़ता है , जिसके लिए वह अब तक सिर्फ सोचता था। |