Practicing Success
निम्नलिखित गद्तांश को पढ़कर उसके आधार पर प्रश्नों का उत्तर दीजिए | उत्साह. वास्तव में कर्म और फल की मिली-जुली अनुभूति है जिसकी प्रेरणा से त्तत्परता आती है। यदि फल दूर ही पर दिखाई पड़े, उसकी भावना के साथ ही उसका लेशमात्र भी कर्म या प्रयत्न के साथ लगाव न मालूम हो तो हमारे हाथ-पाँव कभी न उठें और उस फल के साथ हमारा संयोग ही न हो। इससे कर्म श्रृंखला की पहली कड़ी पकड़ते ही फल के आनंद की भी कुछ अनुभूति होने लागती है। यदि हमें यह निश्चय हो जाए की अमुक स्थान पर जाने से हमें किसी प्रिय व्यक्ति का दर्शन होगा तो उस निश्चय के प्रभाव से हमारी यात्रा भी अत्यंत प्रिय हो जाएगी। हम चल पड़ेंगे और हमारे अंगों की प्रत्येक गति में प्रफुल्लाता दिखाई देगी। यही प्रफुल्लता कठिन-से-कठिन कर्मों के साधन में ही देखी जाती है। वे कर्म भी प्रिय हो जाते हैं और अच्छे लगने लगते हैं। जब तक फल तक पहुँचनेवाला कर्म-पथ अच्छा न लगेगा तब तक केवल फल का अच्छा लगना कुछ नहीं | फल की इच्छा मात्र हृदय में रखकर जो प्रयत्न किया जाएगा वह अभावमय और आनंदशून्य होने के कारण निर्जीव-सा होगा। कर्म-रुचिं शून्य प्रयत्न में कभी-कभी इतना उंत्तावलापन और आकुलता होती है कि मनुष्य साधना के उत्तरोत्तर क्रम का निर्वाह न कर सकने के कारण बीच ही में चूक जाता है। मान लीजिए कि एक ऊँचे पर्वत के शिखर पर विचरते हुए किसी व्यक्ति को नीचे बहुत दूर तक गई हुई सीढ़ियाँ दिखाई दीं और यह मालूम हुआ कि नीचे उत्तरने पर सोने का ढेर मिलेगा। यदि उसमें इतनी. सजीवता है कि उक्त सूचना के साथ ही वह उस स्वर्ण-राशि के साथ एक प्रकार के मानसिक संयोग का अनुभव करने लगा तथा उसका चित्त प्रफुल्ला और अंग सचेष्ट हो गए, उसे एक-एक सीढ़ी स्वर्णमयी दिखाई देगी, एक-एक सीढ़ी उत्तरने में उसे आनंद मिलत्ता जाएगा, एक-एक क्षण उसे सुख से बीतता हुआ जान पड़ेगा और वह प्रसन्नता के साथ स्वर्णराशि तक पहुँचेगा। इस प्रकार उसके प्रयत्न-काल को भी फला-प्राप्ति काल के अंतर्गत ही समझना चाहिए। इसके विरुद्ध यदि उसका हृदय दुर्बल होगा और उसमें इच्छामात्र ही उत्पन्न होकर रह जाएगी, तो अभाव के बोध के कारण उसके चित्त में यही होगा कि कैसे झट से नीचे पहुँच जाएँ उसे एक-एक सीढ़ी उत्तरना बुरा मालूम होगा और आश्चर्य नहीं कि वह या तो हारकर बैठ जाए या लड़खड़ाकर मुँह के बल गिर पड़े। |
कर्म रूचि-शुन्य प्रयत्न में __________ कभी-भी नहीं होनी चाहिए | |
तत्परता आकुलता व्याकूलता जराजकता |
आकुलता |
उत्तर: कर्म रूचि-शुन्य प्रयत्न में आकुलता नहीं होनी चाहिए। व्याख्या: गद्यांश में कहा गया है कि कर्म रूचि-शुन्य प्रयत्न में कभी-कभी इतना उंत्तावलापन और आकुलता होती है कि मनुष्य साधना के उत्तरोत्तर क्रम का निर्वाह न कर सकने के कारण बीच ही में चूक जाता है। आकुलता का अर्थ है बेचैनी, घबराहट, और उत्तेजना। कर्म रूचि-शुन्य प्रयत्न में मनुष्य को फल प्राप्ति की जल्दबाज़ी होती है। वह जल्दी से जल्दी फल प्राप्त करना चाहता है। इस जल्दबाज़ी के कारण वह कर्म-पथ का आनंद नहीं ले पाता है। वह एक-एक सीढ़ी को जल्दी से जल्दी पार करने की कोशिश करता है। इससे वह कर्म-पथ में होने वाली बाधाओं को दूर करने में असमर्थ हो जाता है और बीच में ही चूक जाता है। गद्यांश में दिए गए उदाहरण से भी यह स्पष्ट होता है कि ऊँचे पर्वत पर चढ़ने वाला व्यक्ति यदि जल्दबाज़ी में चढ़ने की कोशिश करेगा, तो वह बीच में ही गिर पड़ेगा। उसे एक-एक सीढ़ी को ध्यान से पार करना होगा। इसलिए, कर्म रूचि-शुन्य प्रयत्न में आकुलता नहीं होनी चाहिए। |